कुटिया रोयी सिसक सिसक कर दीवाली की रात।
कैसे कह दें बीत गया युग ये है बात पुरानी
मर्यादा की लुटी द्रोपदी दीवाली की रात।
घर के कुछ लोगों ने मिलकर खूब मनायीं खुशियाँ
शेष जनों से दूर बहुत थी दीवाली की रात।
जुआ खेलता रहा बैठकर वह घर के तलघर में
रहे सिसकते चूल्हा चक्की दीवाली की रात।
भोला बचपन भूल गया था क्रूर काल का दंशन
फिर फिर याद दिला जाती है दीवाली की रात।
तम के ठेकेदार जेब में सूरज को बैठाये
कैद हो गई चंद घरों में दीवाली की रात।
एक दिया माटी का पूरी ताकत से हुंकारा
जल कर जगमग कर देंगे हम दीवाली की रात।
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डॉ॰ व्योम
2 comments:
बहुत सुंदर कविता !
दीपावली की शुभकामनयें
सुंदर कविता !
दीपावली की शुभकामनायें
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