छन्द
मस्त मंजीरा खनकाय रही मीरा
और रस की गगरियाँ रसखान ढरकाबैं हैं
संग संग खेलैं खेल सूर ग्वाल-बालन के
दुहि पय धेनु को पतूखी मैं पिबावैं हैं
कूटि कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा
गीत गाथन की धुनि जहाँ कान परि जाबै है
ऐसी ब्रज भूमि एक बेर देखिबे के काज
देवता के देवता को मनु ललचाबै है ।
-डॉ॰ जगदीश व्योम
2 comments:
वाह ! बहुत खूब
साधु ! साधु!!
अति सुन्दर्!!
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