16 August 2006

छन्द


छन्द


मस्त मंजीरा खनकाय रही मीरा
और रस की गगरियाँ रसखान ढरकाबैं हैं
संग संग खेलैं खेल सूर ग्वाल-बालन के
दुहि पय धेनु को पतूखी मैं पिबावैं हैं
कूटि कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा
गीत गाथन की धुनि जहाँ कान परि जाबै है
ऐसी ब्रज भूमि एक बेर देखिबे के काज
देवता के देवता को मनु ललचाबै है ।

-डॉ॰ जगदीश व्योम

2 comments:

अनूप भार्गव said...

वाह ! बहुत खूब

अनुनाद सिंह said...

साधु ! साधु!!

अति सुन्दर्!!